एक लेखक जब कोई रचना लिखता है तो कितना कुछ उँडेलता है उसमें! संवेदनशीलता, अनुभव, वैचारिक समझ, सपने, रोष, विद्रोह और भी ना जाने क्या कुछ नहीं । पर सोचता हूँ कि आप कविता लिखें, कहानी लिखें, निबंध या आलोचना लिखें तो साफ़गोई से लिख पाने की हिम्मत की दरकार अपेक्षाकृत कहीं ज़्यादा एक आत्मकथा लिखते वक़्त ही होती है । कविता, कहानी, निबंध या आलोचना में भी स्पष्टता और हिम्मती लेखन की जरूरत होती है मगर अपना भुगता हुआ, किया हुआ और देखा हुआ को नैतिकता-अनैतिकता से परे जाकर साफ-साफ काग़ज पर उकेरने के लिए कलेजा चाहिए। आत्मकथाएं अगर अपने बारे में लिखते हुए शब्दों को दुराव-छिपाव के साथ समाजसम्मत ढाँचें के अनुरूप परोसने लगें तो वह केवल उजले पक्ष को सामने लाना है । आपने जैसा किया, भोगा, देखा,महसूसा या सोचा, उसे ज्यों का त्यों लिख देने के लिए दिली दाद बनती है, खुले मन से तालियां बजाने का मन करता है ।
‘खानाबदोश’ ऐसी ही आत्मकथा है जिसमें अजीत कौर जी ने इस बात की परवाह किए बिना लिखा है कि आप उनके बारे में पढ़कर क्या राय बनाते हैं । उन्होंने आत्मकथा से न्याय करते हुए इस बात की चिंता नहीं की है कि उनकी बेटी या अपने पढ़ेंगे या परिचित सुनेगा-पढ़ेगा तो क्या कहेगा । बेबाक़ी, बेफ़िक्री, उसूलपरस्ती से शायद यह हिम्मत आती है । अजीत कौर जी की ये आत्मकथा इसी बात के लिए पढ़ी जा सकती है कि दोगलेपन के खोल में जीने और जैसे हैं, वैसे जीने में क्या फ़र्क़ है, कितना सुकून है और कौनसा बोझ उतरता है सीने से ! निर्मल, साफ़, बेलाग, शफ़्फ़ाफ, सीधे-सीधे लिखने का नमूना है ये किताब । इसी किताब के लिए 1986 का साहित्य अकादमी पुरस्कार उन्हें दिया गया ।
‘खानाबदोश’ की लेखिका अजीत कौर एक प्रसिद्ध कथाकार, जूझारू और स्वाभिमानी महिला है जिन्होंने अपने जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं । इनकी किताब के शुरू में जो उन्होंने भूमिका में लिखा है, उसे शब्द-दर-शब्द उतारना चाहूँगा ताकि हम इसके पठन से समझ सकें कि इस आत्मकथा में इन्होंने लफ़्ज़-दर-लफ़्ज़ ख़ुद को उतारा है । शिद्दत के साथ, एक जुनून और पागलपन के साथ ।
दर्द ही ज़िंदगी का आख़िरी सच है। दर्द और अकेलापन। और आप न दर्द साझा कर सकते हैं,न अकेलापन। अपना-अपना दर्द और अपना-अपना अकेलापन हमें अकेले ही भोगना होता है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना, कि अपनी सलीब जब अपने कंधों पर उठाकर ज़िंदगी की गालियों में से गुज़रे, तो हम रो रहे थे या मुस्करा रहे थे, कि हमें अपने ज़ख़्मी कंधों पर उठाए अपनी मौत के ऐलान के साथ, लोगों की भीड़ों से तरस माँग रहे थे, कि इस हालत में भई उन्हें एक शहंशाह की तरह मेहर और करम के तोहफ़े बाँट रहे थे। दर्द और अकेलापन अगर अकेले ही भोगना होता है, तो फिर यह दास्तान आपको क्यों सुना रही हूँ ? मैं तो ज़ख़्मी बाज़ की तरह एक पुराने, नंगे दरख़्त की सबसे ऊपर की टहनी पर बैठी थी-अपने ज़ख़्मों से शर्मसार, हमेशा उन्हें छुपाने की कोशिश करती हुई। सुनसान अकेलेपन और भयानक ख़ामोशी से घबराकर यह दास्तान कब कहने लग पड़ी? यसु मसीह तो नहीं हूँ दोस्तो, उनकी तरह आख़िरी सफ़र में भी एक नज़र से लोगों की तकलीफों को पोंछकर सेहत का, रहम का दान नहीं दे सकती। पर लगता है, अपनी दास्तान इस तरह कहना एक छोटा-सा मसीही करिश्मा है जरूर ! नहीं? पर अब जब इन लिखे हुए लफ़्ज़ों को फिर से पढ़ती हूँ तो लगता है,वीरान बेकिनार रेगिस्तान में मैंने जैसे जबरन लफ़्ज़ों की यह नागफ़नी बोई है। पर हर नागफ़नी के आसपास बेशुमार खुश्क रेत है जो तप रही है,बेलफ़्ज़, ख़ामोश।
अजीत कौर वन ज़ीरो वन, ज़रा साँस लेने दो, सफ़ेद और काली हवा की दास्तान, खानाबदोश, हादसों का हजूम, घोंघा और समुंदर, सात नीम-कश तीर, क़िस्सा एक क़यामत का – इन आठ शीर्षकों में इस किताब को पढ़ते वक़्त आप एक हिम्मती,खुद्दार और जुनूनी औरत को अपने सामने सबकुछ कहते हुए, एक रील की माफ़िक़, महसूस कर सकते हैं । उर्दू, पंजाबी, हिंदी, अंग्रेज़ी भाषाओं के बहुत सारे ख़ूबसूरत और खींचने वाले शब्दों से इस आत्मकथा को लिखा गया है ।
‘ज़रा साँस लेने दो’ शीर्षक वाले पन्नों में एक जगह लिखा है – ज़िंदगी तो कमबख़्त आख़िर ज़िंदगी है । मनहूस, बदबख़्त, कमजर्फ़, ढीठ ज़िंदगी । जब मन का, और रूह का, और जिस्म का एक साबुत टुकड़ा काट भी दिया जाए,तो भी बाक़ी की लँगड़ी, लूली, कोढ-खाई ज़िंदगी चलती ही चली जाती है । बेशर्म, बेहया, ढीठ यह ज़िंदगी !
शायद उस वक़्त के हालात को इससे बेहतर व्यक्त नहीं किया जा सकता था । कई बार सोचता हूँ कि कुछ बातें एक ख़ास मोड़ पर छोड़ दी जाएँ तो वही उनकी ख़ूबसूरती है । ज़्यादा कह देने से उघड़ापन या नंगापन आ जाता है और कम कह देने से भावनाओं की शिद्दत महसूस नहीं होती है । अजीत कौर जी जानती हैं कि किस बात को कहाँ लिखकर छोड़ देना है । यही इनकी ताक़त है कि आप फिर अपने-आप बिन पढ़े सब महसूस कर लेते हैं । एक उदाहरण दूँगा इनके ‘सफ़ेद और काली हवा की दास्तान’ से ।
जवाब आया,“मैं वहीं हूँ । और बलदेव आजकल जबलपुर में डिप्टी कमिश्नर है । और तेरा क्या हाल है?” उजड़े हुए लोगों का क्या हाल होना हुआ? मैंने उन्हें जवाब नहीं दिया। सिर्फ़ उसके बाद हमेशा अख़बार खोलकर रोज़ देखती रही कि जबलपुर में मौसम कैसा है ।
बस ये जो अंतिम पंक्ति है ना, इसे इससे ज़्यादा लिख दिया गया होता तो बेथाह, अनिर्वचनीय और बेकिनार मुहब्बत में उघड़ापन आ जाता ! कई बार पढ़ा है खानाबदोश को । हर बार नई लगी है या यूँ कहूँ कि नए सिरे से समझ में आई है ।
कुछ किताबें एक ज़िंदगी होती हैं । पढ़ने के लिए । फिर से जीने के लिए । नसों में बहते ख़ून के साथ महसूस करने के लिए ।
‘खानाबदोश’ ऐसी ही आत्मकथा है जिसमें अजीत कौर जी ने इस बात की परवाह किए बिना लिखा है कि आप उनके बारे में पढ़कर क्या राय बनाते हैं । उन्होंने आत्मकथा से न्याय करते हुए इस बात की चिंता नहीं की है कि उनकी बेटी या अपने पढ़ेंगे या परिचित सुनेगा-पढ़ेगा तो क्या कहेगा । बेबाक़ी, बेफ़िक्री, उसूलपरस्ती से शायद यह हिम्मत आती है । अजीत कौर जी की ये आत्मकथा इसी बात के लिए पढ़ी जा सकती है कि दोगलेपन के खोल में जीने और जैसे हैं, वैसे जीने में क्या फ़र्क़ है, कितना सुकून है और कौनसा बोझ उतरता है सीने से ! निर्मल, साफ़, बेलाग, शफ़्फ़ाफ, सीधे-सीधे लिखने का नमूना है ये किताब । इसी किताब के लिए 1986 का साहित्य अकादमी पुरस्कार उन्हें दिया गया ।
‘खानाबदोश’ की लेखिका अजीत कौर एक प्रसिद्ध कथाकार, जूझारू और स्वाभिमानी महिला है जिन्होंने अपने जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं । इनकी किताब के शुरू में जो उन्होंने भूमिका में लिखा है, उसे शब्द-दर-शब्द उतारना चाहूँगा ताकि हम इसके पठन से समझ सकें कि इस आत्मकथा में इन्होंने लफ़्ज़-दर-लफ़्ज़ ख़ुद को उतारा है । शिद्दत के साथ, एक जुनून और पागलपन के साथ ।
दर्द ही ज़िंदगी का आख़िरी सच है। दर्द और अकेलापन। और आप न दर्द साझा कर सकते हैं,न अकेलापन। अपना-अपना दर्द और अपना-अपना अकेलापन हमें अकेले ही भोगना होता है। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना, कि अपनी सलीब जब अपने कंधों पर उठाकर ज़िंदगी की गालियों में से गुज़रे, तो हम रो रहे थे या मुस्करा रहे थे, कि हमें अपने ज़ख़्मी कंधों पर उठाए अपनी मौत के ऐलान के साथ, लोगों की भीड़ों से तरस माँग रहे थे, कि इस हालत में भई उन्हें एक शहंशाह की तरह मेहर और करम के तोहफ़े बाँट रहे थे। दर्द और अकेलापन अगर अकेले ही भोगना होता है, तो फिर यह दास्तान आपको क्यों सुना रही हूँ ? मैं तो ज़ख़्मी बाज़ की तरह एक पुराने, नंगे दरख़्त की सबसे ऊपर की टहनी पर बैठी थी-अपने ज़ख़्मों से शर्मसार, हमेशा उन्हें छुपाने की कोशिश करती हुई। सुनसान अकेलेपन और भयानक ख़ामोशी से घबराकर यह दास्तान कब कहने लग पड़ी? यसु मसीह तो नहीं हूँ दोस्तो, उनकी तरह आख़िरी सफ़र में भी एक नज़र से लोगों की तकलीफों को पोंछकर सेहत का, रहम का दान नहीं दे सकती। पर लगता है, अपनी दास्तान इस तरह कहना एक छोटा-सा मसीही करिश्मा है जरूर ! नहीं? पर अब जब इन लिखे हुए लफ़्ज़ों को फिर से पढ़ती हूँ तो लगता है,वीरान बेकिनार रेगिस्तान में मैंने जैसे जबरन लफ़्ज़ों की यह नागफ़नी बोई है। पर हर नागफ़नी के आसपास बेशुमार खुश्क रेत है जो तप रही है,बेलफ़्ज़, ख़ामोश।
अजीत कौर वन ज़ीरो वन, ज़रा साँस लेने दो, सफ़ेद और काली हवा की दास्तान, खानाबदोश, हादसों का हजूम, घोंघा और समुंदर, सात नीम-कश तीर, क़िस्सा एक क़यामत का – इन आठ शीर्षकों में इस किताब को पढ़ते वक़्त आप एक हिम्मती,खुद्दार और जुनूनी औरत को अपने सामने सबकुछ कहते हुए, एक रील की माफ़िक़, महसूस कर सकते हैं । उर्दू, पंजाबी, हिंदी, अंग्रेज़ी भाषाओं के बहुत सारे ख़ूबसूरत और खींचने वाले शब्दों से इस आत्मकथा को लिखा गया है ।
‘ज़रा साँस लेने दो’ शीर्षक वाले पन्नों में एक जगह लिखा है – ज़िंदगी तो कमबख़्त आख़िर ज़िंदगी है । मनहूस, बदबख़्त, कमजर्फ़, ढीठ ज़िंदगी । जब मन का, और रूह का, और जिस्म का एक साबुत टुकड़ा काट भी दिया जाए,तो भी बाक़ी की लँगड़ी, लूली, कोढ-खाई ज़िंदगी चलती ही चली जाती है । बेशर्म, बेहया, ढीठ यह ज़िंदगी !
शायद उस वक़्त के हालात को इससे बेहतर व्यक्त नहीं किया जा सकता था । कई बार सोचता हूँ कि कुछ बातें एक ख़ास मोड़ पर छोड़ दी जाएँ तो वही उनकी ख़ूबसूरती है । ज़्यादा कह देने से उघड़ापन या नंगापन आ जाता है और कम कह देने से भावनाओं की शिद्दत महसूस नहीं होती है । अजीत कौर जी जानती हैं कि किस बात को कहाँ लिखकर छोड़ देना है । यही इनकी ताक़त है कि आप फिर अपने-आप बिन पढ़े सब महसूस कर लेते हैं । एक उदाहरण दूँगा इनके ‘सफ़ेद और काली हवा की दास्तान’ से ।
जवाब आया,“मैं वहीं हूँ । और बलदेव आजकल जबलपुर में डिप्टी कमिश्नर है । और तेरा क्या हाल है?” उजड़े हुए लोगों का क्या हाल होना हुआ? मैंने उन्हें जवाब नहीं दिया। सिर्फ़ उसके बाद हमेशा अख़बार खोलकर रोज़ देखती रही कि जबलपुर में मौसम कैसा है ।
बस ये जो अंतिम पंक्ति है ना, इसे इससे ज़्यादा लिख दिया गया होता तो बेथाह, अनिर्वचनीय और बेकिनार मुहब्बत में उघड़ापन आ जाता ! कई बार पढ़ा है खानाबदोश को । हर बार नई लगी है या यूँ कहूँ कि नए सिरे से समझ में आई है ।
कुछ किताबें एक ज़िंदगी होती हैं । पढ़ने के लिए । फिर से जीने के लिए । नसों में बहते ख़ून के साथ महसूस करने के लिए ।
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