कल मेरा जन्मदिन है। एक गहरा, सुन्न करने वाला अवसाद—मानो मेरे पिछले सारे वर्ष एक सपने में गुज़र गए हैं। मैं बीच-बीच में हुड़क कर उठ जाता हूँ। कौन-सी मेरी वास्तविक स्थिति है, वह जो सपने-सा बीत गया है या चकाचौंध रोशनी के वे क्षण जब सब सपने-सा दीखता है? जीने का अंतिम क्षण जागने का होगा या—सपने में लौटने का?
एक बार मुझे अपनी पुरानी डायरी हाथ लगी थी, मेरा सातवा या आठवां जन्मदिन रहा होगा—कितना विषाद और पछतावा था उस दिन, कि इतने वर्ष बीत गए और मैंने कुछ नहीं किया! और अब जब सचमुच सब बीत गया है, लगता है, कोई असली सत्य पाना अभी भी शेष है। वह एक संयमित, सात्विक जीने में उपलब्ध हो सकेगा, जिसकी झलक कभी विटगेन्श्टाइन, कभी सिमोन वेल, कभी फ्लाबे में पाकर मैं इतना अभिभूत हो जाता था...।
◆ *विक्रमसिंह वालेरा*
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